पुण्यतिथि पर विशेष: राष्ट्र के स्वप्न द्रष्टा एवं प्रखर राष्ट्र भक्त पण्डित दीनदयाल उपाध्याय


        पं. दीनदयाल जी उपाध्याय भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में एक थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रखर विचारक उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवन पर्यंन्त अपनी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा को जीवन में सबसे ज्यादा महत्त्व दिया था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय मजहब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का जिम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही इसके साथ ही साथ मूल्य आधारित भारतीय संस्कृति की राजनीति के पुरोधा भी थे। दीनदयाल जी की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा हैं । दीनदयाल उपाध्याय की पुस्तक 'एकात्म मानववाद' एक ऐसा  विधान है जिसका अनुसरण राजनैतिक  सुचिता के लिए आवश्यक भी है । वह साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों की समालोचना करते हुए अंत्योदय मानवता को महत्व देते थे।
    एकात्म मानववाद में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजित कानूनों के अनुरुप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय अंत्योदय की बात करने वाले ज्योतिपुंज थे। उन्होंने समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के कल्याण को राजनीतिक चिंतन का एजेंडा बनाया था। उनके इस चिंतन का असर आज दिखता है। आज एकात्म मानववाद की ताकत दुनियां देख रही है।
प्रधानमंत्री मोदी जी सरकार पूरी प्रतिबद्धता और ईमानदारी के साथ पंडित उपाध्याय के अंत्योदय के सपने को राष्ट्रोदय में बदलने का कार्य कर रही है। पहली बार मत, मजहब, क्षेत्र, भाषा के भेदभाव के बिना हर एक पात्र व्यक्ति को शौचालय, आवास, उज्ववला कनेक्शन मिल रहा है। बिना किसी भेदभाव बिजली आपूर्ति की जा रही है। देश की 80 करोड़़ आबादी को मुफ्त राशन मिल रहा है। कोरोना महामारी के दौरान टीके की 220 करोड़ खुराक लोगों को मुफ्त दी गईं।’
पंडित दीनदयाल जी ने जो अंत्योदय के उत्थान का सपना देखा था उसे मूर्त देते हुए आज नरेंद्र मोदी अनेक लोक कल्याणकारी कार्यक्रम चला रही हैं। जन कल्याण के लिए प्रतिबद्धता व ईमानदारी से कार्य कर रही है।
कोरोना महामारी के कालखंड में जब पूरी दुनिया त्रस्त थी तब डबल इंजन की सरकार ने प्रबंधन और जनकल्याण का एक मॉडल प्रस्तुत किया। कोई महामारी समाप्त हो भी जाती है तो भुखमरी की बीमारी छोड़ जाती है। पर, डबल इंजन सरकार ने अहर्निश भाव से कार्य करते हुए महामारी पर तो नियंत्रण पाया ही, साथ ही गरीबों को भुखमरी से भी बचाया।
     पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को ब्रज के पवित्र क्षेत्र मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में हुआ था। पं. दीनदयाल जी के पिताश्री का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय एवं माता का नाम रामप्यारी था, जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं । रेलवे की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय घर के बाहर व्यतीत होता था । उनके पिता कभी कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम शिवदयाल रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने अपनी पत्नी व बच्चों को मायके भेज दिया। उस समय दीनदयाल के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया में स्टेशन मास्टर थे। मामा का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ खाते खेलते बड़े हुए। वे दोनों ही रामप्यारी और दोनों बच्चों का खास ध्यान रखते थे।
         तीन वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग हो गया। 8 अगस्त सन् 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं । 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता पिता के प्यार से वंचित हो गये। सन् 1934 में बीमारी के कारण दीनदयाल के भाई का देहान्त हो गया।

        गंगापुर में दीनदयाल के मामा  रहते थे। उनका परिवार उनके साथ ही था। गाँव में पढ़ाई का अच्छा प्रबन्ध नहीं था । इसलिए नाना चुन्नीलाल ने दीनदयाल को पढ़ाई के लिए मामा के पास गंगापुर भेज दिया। गंगापुर में दीना की प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ हुआ मामा राधारमण की भी आय कम और खर्चा अधिक था। उनके अपने बच्चों का खर्च और साथ में दीना और शिबु का रहन सहन और पढ़ाई का खर्च करनी पड़ती थी।

   इसी बीच सन 1926 के सितम्बर माह में दीनदयाल जी के नानाजी चुन्नीलाल के स्वर्गवास की दुखद सूचना मिली। इस घटना से दीनदयाल जी के मन पर गहरी चोट लगी। इस दुख से उभर भी नहीं पाए थे कि मामा राधारमण बीमार पड़ गए। वैद्यों ने बताया कि उन्हें टीबी की बीमारी हो गई है। उनका बचना कठिन है। वैद्यों ने औषधि देने से मना कर दिया। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए यही समस्या थी। लखनऊ में उनके एक सम्बन्धी रहते थे। उनके पास से राधारमण का बुलावा आया। लखनऊ में इलाज की अच्छी व्यवस्था थी। किन्तु उन्हें वहाँ कौन ले जाए यही समस्या थी। कहीं यह छूत की बीमारी किसी और को न लग जाए इसी से सब उनके पास जाने से भी डरते थे। दीनदयाल जी मामा की सेवा में लगे रहते थे। मामा के मना करने पर भी वह नहीं मानते थे । मामा का लड़का बनवारी लाल भी दीना के साथ पढ़ता था किन्तु अपने पिता के पास जाने में वह भी छूत की बीमारी से डरता था। दीनदयाल जी की आयु इस समय ग्यारह बारह वर्ष की ही थी। वह अपने मामा को लखनऊ ले जाने के लिए तैयार हो गये । मामा ने बहुत मना किया। दीनदयाल जी नहीं माने । अंत  में मामा को दीनदयाल जी की बात माननी ही पड़ी। लखनऊ में मामा का उपचार आरम्भ हुआ। दीना ने डटकर मामा की सेवा की। उसकी परीक्षा भी पास आ रही थी। किन्तु उन्हें मामा की सेवा के अलावा और कोई ध्यान नहीं था। परीक्षा का ध्यान आते ही मामा ने दीना को गंगापुर भेज दिया। दीना पढ़ भी नहीं सके। किन्तु होनहार बिरवान के होत चीकने पात वाली कहावत को उसने चरितार्थ कर दिया। दीना ने परीक्षा में सर्वोच्च अंक पाकर प्रथम स्थान प्राप्त किया। यह सभी के लिए आश्चर्य और प्रसन्नता की बात थी।

दीनदयाल जी को अपने गांव कोट  जाना पड़ा। गंगापुर में आगे की पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी। कोट गाँव में उसने पाँचवीं कक्षा में प्रवेश लिया। वहाँ भी वह पढ़ाई में प्रथम ही रहते थे। राजघर जाकर आठवीं और नवीं कक्षा पास की। दीनदयाल जी के पास पढ़ने के लिए पुस्तकें तक नहीं थीं। दीनदयाल जी के मामा का लड़का भी उसके साथ पढ़ता था। जब ममेरा भाई सो जाता या पढ़ाई नहीं करता था। तब दीनदयाल जी ने उसकी पुस्तकों से पढ़ लेते थे । अब दीनदयाल जी नवीं कक्षा में थे । दीनदयाल को फिर भारी दुःख का सामना करना पड़ा। उसका छोटा भाई शिबु भी टाइफाइड होने से चल बसा। दीनदयाल जी को गहरा दुःख हुआ। दोनों भाइयों में बहुत अधिक प्यार था। नवीं कक्षा पास करने के बाद दीनदयाल जी राजघर से सीकर चले गये । वहाँ भी उनने अपने अध्यापकों पर अपनी बुद्धि लगन और परिश्रम की धाक जमा दी।  हाईस्कूल की परीक्षा आरम्भ हो गई। दीना ने अच्छी तरह अपने प्रश्नपत्र किए। दीनदयाल जी ना केवल परीक्षा में प्रथम आये बल्कि कई विषयों में एक नया रिकार्ड भी बनाया। उसकी रेखागणित की उत्तर पुस्तिका कितने ही वर्षों तक नमूने के रूप में रखी गई।

      पंडित दीनदयाल जी ने 21 सितम्बर 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य इकाई भारतीय जनसंघ की नींव डाली। पंडित दीनदयाल जी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 21 अक्तूबर 1951 को आयोजित पहले अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की । पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी।

       पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय अपनी चाची के कहने पर धोती तथा कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी, जबकि दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मजाक में उन्हें पंडितजी कहकर पुकारा  यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोग बाद के वर्षों में उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल किया करते थे। इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे। वे अपने चाचा की अनुमति लेकर बेसिक ट्रेनिंग करने के लिए प्रयाग चले गए और प्रयाग में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना जारी रखा। बेसिक ट्रेनिंग पूरी करने के बाद वे पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में जुट गए और प्रचारक के रूप में जिला लखीमपुर उत्तर प्रदेश चले गए। सन् 1955 में दीनदयाल उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय प्रचारक बने ।
      पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आख़िर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयाल जी इस महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए।

        पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। दीनदयाल जी देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जीया था । पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं। प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह पॉलिटिकल डायरी नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोड़कर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।

      पंडित जी ने राजनीतिक एवं सामाजिक विषयों पर बहुत कुछ लिखा है। जिनमें एकात्म मानववाद ,लोकमान्य तिलक की राजनीति , जनसंघ का सिद्धांत और नीति जीवन का ध्येय राष्ट्र जीवन की समस्यायें राष्ट्रीय अनुभूति, कश्मीर अखंड भारत भारतीय राष्ट्रधारा का पुनः प्रवाह भारतीय संविधान इनको भी आजादी चाहिए । 

      विलक्षण बुद्धि सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी पं दीनदयाल उपाध्याय जी की रहस्यमई हत्या 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय हुई थी। उनका पार्थिव शरीर मुगलसराय स्टेशन की पटरियों पर पड़ा मिला था ।  
       आज के आधुनिक भारत के निर्माण में भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की सम्पूर्ण योजना और कार्यपद्धति प. दीनदयाल जी उपाध्याय के एकात्म मानववाद के सिद्धांत पर आधारित है। समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति का कल्याण व विकास पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का सपना था। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार पंडित उपाध्याय के सपनों को पूरा कर रही है।

       भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान नक्षत्र ने भारत वर्ष में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण तक राष्ट्र को समर्पित कर दिये ।


जवाहर प्रजापति  
भाजपा प्रदेश सह मीडिया प्रभारी,
मध्यप्रदेश

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