समय के साथ आए बदलाव के बाबजूद मेले में लगती आ रही हैं परंपरागत दुकानें
ग्वालियर । लगभग 120 साल पहले शुरू हुए ऐतिहासिक ग्वालियर मेले में समय के साथ कई बदलाव आए हैं। मेले में रेडियो व घड़ियों की छोटी-छोटी दुकानों का स्थान इलेक्ट्रोनिक सामान के बड़े-बड़े शोरूम ने ले लिया है, वहीं हाथों से संचालित पालकी वाले छोटे-छोटे झूलों के स्थान पर बिजली से चलने वाले बड़े-बड़े रोमांचक झूले मेले में लगने लगे हैं। पर कई पारंपरिक दुकानें ऐसी हैं जो मेले की शुरूआत से साल दर साल वर्तमान आधुनिक मेले तक में लगती आ रही हैं।
इस साल के श्रीमंत माधवराव सिंधिया ग्वालियर व्यापार मेले में भी ऐसी परंपरागत दुकानें लगी हैं। जिनमें घोड़ा, बैल व अन्य पालतू पशुओं, बग्घी व तांगा की सजावट सामग्री, घुंगरू, घंटी, झींका व मंजीरे, बुजुर्गों को सहारा देने वाला बैंत इत्यादि रोजमर्रा की जरूरतों वाली वस्तुओं की दुकानें शामिल हैं। सजावटी सामान की दुकानें लगाने वाले कई परिवार ऐसे हैं जो तीन-चार पीढ़ियों से इस प्रकार की दुकानें ग्वालियर मेले में लगाते आए हैं। इस बार ऑटोमोबाइल सेक्टर के समीप ये दुकानें लगी हैं। उत्तरप्रदेश के फतेहाबाद कस्बे से आए मोहम्मद वाजिद बताते हैं कि तीन पीढ़ियों से मेले में हमारी दुकान लगती आई है। मुझसे पहले मेरे वालिद मुन्ने खाँ और उससे पहले हमारे दादा मरहूम रियाजुद्दीन दुकान लगाते थे। मोहम्मद वाजिद का कहना था हालांकि मशीनी दौर में खेती-बाड़ी में बैल जोड़ी का स्थान ट्रेक्टर ने ले लिया। साथ ही घोड़ा, ऊँट व इस प्रकार के अन्य पशुओं को पालने की प्रवृत्ति भी कम हुई। इसका असर हमारे व्यवसाय पर पड़ा है। पर ग्रामीण अंचल में इसकी मांग अब भी है। घंटी, घुंगरू, बैंत, मंजीरा व झींका इत्यादि की बिक्री अभी भी मेले में खूब हो जाती है। ग्रामीण जन वर्ष भर मेले का इंतजार करते हैं और हमारी दुकान से यह सामग्री लेकर जाते हैं।
इसी तरह आगरा जिले के बटेश्वर से दुकान लगाने आए सोहिल खान कहते हैं कि भले ही आधुनिकता के दौर में बुजुर्गों के लिये वॉकर व स्टिक बन गई हों पर लकड़ी से बने बैंत की मांग अभी भी ग्रामीण अंचल में खूब है। ग्रामीणजन अपने बुजुर्गों को चलने में मदद के लिए मेले से लकड़ी के बैंत खरीदकर ले जाते हैं। इसके अलावा तांगा व बग्घी की सजावट सामग्री की थोड़ी-बहुत बिक्री भी हो जाती है। कुल मिलाकर मेला अभी भी हमारे लिये फायदेमंद ही रहता है।