दुनिया में चमक फैला रहे हैं अनूपपुर के दीपक अग्रवाल

रेत पर कश्तियां ने मुग्ध किया साहित्यकारों को

अनूपपुर / कोई कोई ही ऐसा होता है जिसकी कलम की तलाश में कविताएँ ख़ुद बेचैन रहा करती हैं। शायरी अपने मिजाज़, अपने हुनर, अपनी नज़र और लहज़े की खोज में उस कलम तक ख़ुद पहुँचती है। हर लम्हा बदलता हुआ वक़्त और शब-ओ-रोज़ की बारीकियाँ जिन अल्फ़ाज़ों में अक्सर अपनी आवाज़ हासिल करती हैं, वह कलम जिसकी अना की क़ीमत कोई अदा नहीं कर सकता, जहां खामोशी के अंधेरे में डुबा दी गयीं ज़ुबानें अपना ज़मीर, ज़ज़्बा, रूह, ताक़त और ज़िंदगी की उम्मीद हासिल करती हैं, दीपक अग्रवाल के पास वह कलम कहाँ से और कैसे आयी ? यह एक ‘एनिग्मा’ या उलझी हुई पहेली है।

यह तहरीर प्रख्यात कवि कथाकार फिल्म राइटर *उदय प्रकाश* ने मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी के सौजन्य से अर्शिया पब्लिकेशन दिल्ली से प्रकाशित देश के जाने-माने युवा शाइर *दीपक अग्रवाल* के हाल ही में प्रकाशित गजल संग्रह *"रेत पर कश्तियां"* के लिए लिखे गए मजमून में लिखी है।

रेत पर कश्तियां दीपक अग्रवाल का पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसमें उनकी 100 ग़ज़लें संग्रहित हैं। अनूपपुर में रहने वाले दीपक अग्रवाल देश के सबसे प्रतिभावान शो'रा में मानेजाते हैं। इन्होंने पिछले एक दशक के दौरान लगभग देशभर में 100 से ज़्यादा अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरों में शिरकत की है। इन्होंने देश के नामवर शो'रा मुनव्वर राना, राहत इंदौरी, नवाज़ देवबंदी, अंजुम रहबर, मंसूर उस्मानी, अक़ील नोमानी, अतुल अजनबी, डॉ. तारिक़ क़मर, जौहर कानपुरी, शबीना अदीब के साथ ही अन्य सुप्रसिद्ध कवि व शाइरों के साथ मंच साझा किया है। दीपक अग्रवाल की यह किताब किसी शहडोल संभाग के किसी शाइर की उर्दू में प्रकाशित होने वाली ग़ज़ल की पहली पुस्तक है।
दीपक अग्रवाल ने अपने पहले ग़ज़ल संग्रह के आने के बाद उर्दू अकादमी की डायरेक्टर *नुसरत मेहदी* और सुप्रसिद्ध शाइर *अतुल अजनबी* जिन्होंने इनका हर पल साथ निभाया का खासतौर पर शुक्रिया अदा किया है। उदय प्रकाश के अलावा *सरहद पार से दुनिया के जाने-माने शाइर रहमान फ़ारिस* ने इस पुस्तक में *"दीपक राग की नमूद"* शीर्षक से लिखी अपनी बेहद अहम तहरीर में लिखा है कि 
"दीपक अपने ही नाम ही जैसा है।
सका दिल बुझता है तो ये सुखन का दीप जला लेता है जिसकी किरन किरन में दीपक राग के सुर समोये और क़दीम मुक़द्दस आग के मोती पिरोए होते हैं। मिसरों से चौंकाना अस्ल फ़न नहीं है क्योंकि फुलझड़ी तो दम-दो-दम आंखें चकाचौंध करके जल बुझती है, अस्ल लुत्फ़ चराग़ सा मुसलसल जलते रहने में है और ये वो हुनर है जो दीपक को आता है। धीमी लौ और मीठी ज़ौ इसकी ग़ज़ल में शे'र दर शे'र उड़ान करती है और क़ारी की आंखों में हैरत का सामान करती है। बहुत दिनों में सरहद पार से कोई लड़का ऐसा नज़र आया है कि जो तीखे तेवर के साथ नमूदार हुआ है।"
 *अक़ील नोमानी* लिखते हैं कि दीपक के अशआर में इन्सान के सीने में धड़कते हुए दिल की आवाज़ ज़िंदगी का फ़लसफ़ा फ़ित्रत इन्सान के अच्छे और ख़राब पहलू इसकी नफ़सियात मजबूरी महरूमी हमारे समाज और सियासत से मुताल्लिक़ नज़रियात सब कुछ नज़र आया । उनके अशआर तसना और मुबालग़ा आराई के पीछे नहीं भागते बल्कि सच के तर्जुमान लगते हैं ।
वहीं न्यूज़18 उर्दू के सीनियर एंकर और सुप्रसिद्ध शाइर *डॉ. तारिक़ क़मर* ने दीपक अग्रवाल की शायरी पर अपना नज़रिया यूं रखा है -
"शे'री अदब के मौजूदा मंज़र नामे पर नज़र डालिए तो कभी कभी इस एहसास से दो-चार होना पड़ता है कि नई नस्ल के बेशतर शाइरों ने शे'र-ओ-शऊर के इंसिलाक और रिश्तों को माज़ी के मज़ारों में दफ़्न कर दिया है। रसाइल-ओ-जराइद से मुशायरों के डाइस तक एक बड़ा हलक़ा ऐसे क़लमकारों का मौजूद है जो शायरी के नाम पर या तो ग़ज़ल के पामाल शुदा मौज़ूआत-ओ-तजरबात को दुहराकर क़ारईन को फ़्रीज में रखे ठंडे और बासी खाने की तरह का अदब परोस रहा है या फिर मुशायरे के स्टेज से सामईन के नाम पर तमाशबीनों की भूख मिटाने और उनके जज़्बात की तसकीन के लिए फ़ास्टफ़ूड की तरह की ऐसी अख़बारी शाइरी पेश कर रहा है जो अदब और मुआशरे दोनों की सेहत के लिए मुज़िर है। ऐसे दौर ऐसे हालात में दीपक अग्रवाल जैसे शाइरों का मंज़र-ए-आम पर आना और शनाख़्त की मंज़िलें तय करना उस रोशनी की बशारत है जो अदब के संजीदाक़ारी को शब-ए-मायूसी से निकाल कर यक़ीन-ए-सहर अता करती है।
मैं कभी कभी दीपक को पढ़ते और सुनते हुए सोचता हूँ कि ये आवाज़ नई होने के बावजूद भी मानूस सी क्यों महसूस होती है?
शायद इस का बुनियादी सबब ये है कि नए और जदीद मौज़ूआत को अपनी शायरी का महवर-ओ-मर्कज़ बनाते हुए भी दीपक ने माज़ी की मुस्तहकम शे'री रवायात और अदबी क़दरों से अपने रिश्ते को टूटने नहीं दिया है। दीपक को एहसास है कि तबदीलिये वक़्त के साथ फ़न के तक़ाज़े और मौज़ूआत और बरताव के तरीक़े और सलीक़े तो तबदील हो रहे हैं लेकिन नई ग़ज़ल की तामीर क़दीम बुनियादों पर ही ज़्यादा मुस्तहकम हो सकती है। इसलिए उनकी शाइरी सिर्फ़ क्रा़फ्ट नहीं, सन्नाई या कारीगरी नहीं बल्कि एक तर्ज़-ए-ज़िंदगी है , दीपक की ग़ज़ल सिर्फ़ महबूब की ज़ुल्फ़ों की असीर नहीं ये ग़ज़ल सिर्फ़ महबूबा के लब-ओ-रुख़्सार की हिकायतें और कहानियां ही बयान नहीं करती बल्कि ज़िंदगी के अहम मसाइल की अक्कासी और तर्जुमानी भी करती है। और इस अच्छी शाइरी का एक रोशन पहलू ये भी है कि इस तख़लीक़ी अमल से गुज़रते हुए भी दीपक ने ग़ज़ल की लिसानी तहज़ीब को मलहूज़ रखा है, मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत को बरतते हुए भी उन्होंने अपने लहजे को दरबारी और ग़ज़ल को अख़बारी नहीं होने दिया है, ये रख-रखाव ही उन्हें नई नस्ल के बेशतर शो'रा से मुख़्तलिफ़ और नुमायां करता है । दीपक की ग़ज़ल एक ऐसा आईना-ख़ाना, ऐसा निगार-ख़ाना है जिसमें आप अपने अह्द की बनती बिगड़ती तस्वीरें देख सकते है, इस के पस-ए-मंज़र में अपने अह्द का तजज़िया कर सकते हैं।"
दीपक अग्रवाल के इस ग़ज़ल संग्रह के मज़रे आम पर आने के हिन्दी उर्दू अदब के साहित्यकारों ने मुबारकबाद देते हुए उम्मीद जताई है कि दीपक अग्रवाल आने वाले वक़्त में भी दुनिया-ए-अदब में इसी तरह अपनी रोशनी बिखेरते रहेंगे। वहीं दीपक अग्रवाल ने सभी का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि मेरे अब तक के साहित्यिक सफ़र में मेरे वरिष्ठ और साहित्यकारो, स्थानीय साहित्यकारों और परिवार जनों ने मेरा भरपूर साथ दिया। मैं अपने श्रोताओं, पाठकों और सोशल मीडिया के मित्रों का आभारी हूं। मैं विभिन्न आकाशवाणी केंद्रों, पत्र पत्रिकाओं के संपादकों, टीवी चैनल्स का भी शुक्रगुजार हूं कि जिन्होंने मुझे अवसर देकर आगे बढ़ाया ।

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